ट्रांसमिशन लाइन की ऊंचाई और दूरी कई कारकों पर निर्भर करती है

ट्रांसमिशन लाइन की ऊंचाई और दूरी कई कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि वोल्टेज स्तर, इलाके का प्रकार, और सुरक्षा के नियम। भारत में, इन मापदंडों को भारतीय विद्युत नियमों (Indian Electricity Rules) और भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards) के दिशानिर्देशों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।

ट्रांसमिशन लाइन की ऊंचाई (Height of Transmission Line)

​ट्रांसमिशन टावरों की ऊंचाई कई चीजों से तय होती है, जिसमें टावर की न्यूनतम जमीन से दूरी (minimum ground clearance), कंडक्टरों के बीच ऊर्ध्वाधर दूरी (vertical spacing between conductors) और सैग (sag) शामिल है। सैग वह अधिकतम झुकाव है जो कंडक्टरों में तापमान, हवा और बर्फ जैसी स्थितियों के कारण होता है।

  • कम और मध्यम वोल्टेज लाइनें (Low and Medium Voltage Lines): इन लाइनों के लिए न्यूनतम जमीन से दूरी 5.8 मीटर (लगभग 19 फीट) होनी चाहिए।
  • उच्च वोल्टेज लाइनें (High Voltage Lines): 11,000 वोल्ट तक की लाइनों के लिए न्यूनतम दूरी 3.7 मीटर (लगभग 12 फीट) और 33,000 वोल्ट तक की लाइनों के लिए भी यही दूरी है।
  • अतिरिक्त-उच्च वोल्टेज लाइनें (Extra-High Voltage Lines): 33,000 वोल्ट से ऊपर की लाइनों के लिए न्यूनतम जमीन से दूरी 5.2 मीटर (लगभग 17 फीट) होनी चाहिए, और हर अतिरिक्त 33,000 वोल्ट के लिए इसमें 0.3 मीटर (लगभग 1 फीट) की वृद्धि होती है।

ट्रांसमिशन लाइन की दूरी (Distance of Transmission Line)

​ट्रांसमिशन लाइनों के बीच की दूरी (span) टावर के प्रकार और वोल्टेज पर निर्भर करती है। यह कंडक्टरों के बीच क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दूरी को भी संदर्भित करता है।

  • दो पोल के बीच की दूरी: यह दूरी भी वोल्टेज के स्तर पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, 11 kV की लाइनों में दो पोल्स के बीच की दूरी आमतौर पर 45 से 65 मीटर होती है।
  • बिल्डिंग से दूरी: सुरक्षा के लिए, ट्रांसमिशन लाइन और किसी इमारत के बीच एक निश्चित दूरी होना जरूरी है।
    • ​जब लाइन किसी इमारत के ऊपर से गुजरती है, तो सबसे ऊंचे बिंदु से 2.5 मीटर (लगभग 8 फीट) की ऊर्ध्वाधर दूरी होनी चाहिए।
    • ​जब लाइन किसी इमारत के बगल से गुजरती है, तो निकटतम बिंदु से 1.2 मीटर (लगभग 4 फीट) की क्षैतिज दूरी होनी चाहिए।

​यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये न्यूनतम सुरक्षा मानक हैं, और वास्तविक टावर डिजाइन और निर्माण में अधिक दूरी को प्राथमिकता दी जाती है ताकि सुरक्षा और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके।



ट्रांसमिशन लाइनों को मुख्य रूप से तीन मानदंडों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है: लंबाई, वोल्टेज स्तर और करंट का प्रकार।

लंबाई के आधार पर

  • शॉर्ट ट्रांसमिशन लाइन (Short Transmission Line):
    • ​इनकी लंबाई आमतौर पर 50 से 80 किमी तक होती है।
    • ​इनमें लाइन की कैपेसिटेंस (capacitance) को नगण्य माना जाता है, इसलिए गणना में केवल प्रतिरोध (resistance) और इंडक्टेंस (inductance) को ही शामिल किया जाता है।
  • मीडियम ट्रांसमिशन लाइन (Medium Transmission Line):
    • ​इनकी लंबाई 80 से 240 किमी के बीच होती है।
    • ​इनमें कैपेसिटेंस के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इसलिए इसे भी गणना में शामिल किया जाता है।
  • लॉन्ग ट्रांसमिशन लाइन (Long Transmission Line):
    • ​इनकी लंबाई 240 किमी से अधिक होती है।
    • ​ये बहुत उच्च वोल्टेज पर काम करती हैं और इनके सभी पैरामीटर (प्रतिरोध, इंडक्टेंस और कैपेसिटेंस) को पूरी लाइन पर समान रूप से वितरित माना जाता है।

वोल्टेज के आधार पर

  • हाई वोल्टेज (High Voltage - HV):
    • ​इन लाइनों में वोल्टेज 69 kV से 230 kV तक होता है।
    • ​ये लाइन्स आमतौर पर शहरी क्षेत्रों में बिजली वितरण के लिए उपयोग होती हैं।
  • एक्स्ट्रा हाई वोल्टेज (Extra High Voltage - EHV):
    • ​इनका वोल्टेज 220 kV से 765 kV तक होता है।
    • ​ये लंबी दूरी तक बड़ी मात्रा में बिजली पहुंचाने के लिए उपयोग की जाती हैं।
  • अल्ट्रा हाई वोल्टेज (Ultra High Voltage - UHV):
    • ​इनका वोल्टेज 765 kV से अधिक होता है।
    • ​ये बहुत लंबी दूरी तक भारी मात्रा में बिजली पहुंचाने के लिए उपयोग की जाती हैं, जिससे लाइन में होने वाले नुकसान (losses) कम होते हैं।

करंट के प्रकार के आधार पर

  • AC ट्रांसमिशन (AC Transmission):
    • ​यह सबसे आम प्रकार है। इसमें अल्टरनेटिंग करंट (AC) का उपयोग होता है।
    • ​इसे ट्रांसफॉर्मर की मदद से आसानी से उच्च या निम्न वोल्टेज में बदला जा सकता है।
  • DC ट्रांसमिशन (DC Transmission):
    • ​इसे हाई वोल्टेज डायरेक्ट करंट (HVDC) ट्रांसमिशन भी कहते हैं।
    • ​इसका उपयोग बहुत लंबी दूरी तक बिजली पहुंचाने में होता है, क्योंकि इसमें नुकसान (losses) AC की तुलना में कम होते हैं। यह खासकर पानी के नीचे केबल्स के माध्यम से बिजली भेजने के लिए भी उपयोगी है।


ट्रांसमिशन लाइन का ग्राउंड क्लीयरेंस (जमीन से न्यूनतम दूरी) वोल्टेज के स्तर पर निर्भर करता है और इसे सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। भारत में, इसके लिए कुछ मानक नियम हैं।

विभिन्न वोल्टेज लाइनों के लिए न्यूनतम ग्राउंड क्लीयरेंस इस प्रकार है:

  • कम और मध्यम वोल्टेज (Low and Medium Voltage): 5.8 मीटर (लगभग 19 फीट)।
  • उच्च वोल्टेज (High Voltage):
    • ​11,000 वोल्ट तक: 4.6 मीटर (लगभग 15.1 फीट)।
    • ​11,000 वोल्ट से अधिक: 5.2 मीटर (लगभग 17.1 फीट)।
  • अतिरिक्त-उच्च वोल्टेज (Extra-High Voltage): 33,000 वोल्ट से अधिक की लाइनों के लिए, न्यूनतम ग्राउंड क्लीयरेंस 5.2 मीटर है, जिसमें हर अतिरिक्त 33,000 वोल्ट के लिए 0.3 मीटर (लगभग 1 फीट) की वृद्धि होती है।

​यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब ट्रांसमिशन लाइन किसी सड़क या गली के ऊपर से गुजरती है, तो न्यूनतम ग्राउंड क्लीयरेंस 6.1 मीटर (लगभग 20 फीट) होना चाहिए।



ट्रांसमिशन लाइनों में इंसुलेटर का मुख्य कार्य बिजली को टावर या खंभे तक जाने से रोकना और कंडक्टर (तार) को सहारा देना है। ट्रांसमिशन लाइन में उपयोग होने वाले कुछ प्रमुख इंसुलेटर के प्रकार इस प्रकार हैं:

सस्पेंशन इंसुलेटर (Suspension Insulator)

  • उपयोग: यह 33 kV से अधिक वोल्टेज वाली उच्च-वोल्टेज लाइनों के लिए सबसे आम प्रकार है।
  • संरचना: इसमें कई डिस्क इंसुलेटर एक स्ट्रिंग में जुड़े होते हैं, जिन्हें टॉवर के क्रॉस-आर्म से लटकाया जाता है। लाइन का कंडक्टर सबसे नीचे वाले डिस्क से जुड़ा होता है। वोल्टेज बढ़ने के साथ-साथ डिस्क की संख्या भी बढ़ जाती है।

स्ट्रेन इंसुलेटर (Strain Insulator)

  • उपयोग: इसका उपयोग उन जगहों पर किया जाता है जहाँ लाइन पर अधिक यांत्रिक तनाव होता है, जैसे कि लाइनों के सिरों पर (dead-end) या तीखे मोड़ों पर।
  • संरचना: यह सस्पेंशन इंसुलेटर के समान होता है, लेकिन इसे लंबवत की जगह क्षैतिज रूप से लगाया जाता है ताकि यह खिंचाव को सहन कर सके।

हॉर्न गैप इंसुलेटर (Horn Gap Insulator)

​आपका प्रश्न "हॉन वाले इंसुलेटर" के बारे में था, जिसे आमतौर पर आर्किंग हॉर्न (Arcing Horn) के रूप में जाना जाता है। यह कोई अलग प्रकार का इंसुलेटर नहीं है, बल्कि यह एक सुरक्षात्मक उपकरण है जो इंसुलेटर के साथ लगाया जाता है।

  • उपयोग: आर्क हॉर्न का मुख्य कार्य इंसुलेटर और अन्य उपकरणों को अत्यधिक वोल्टेज से बचाना है। यह तब काम करता है जब बिजली गिरने या किसी अन्य कारण से लाइन में अचानक वोल्टेज बढ़ जाता है।
  • कार्यविधि: जब वोल्टेज सामान्य से बहुत अधिक हो जाता है, तो हॉर्न के बीच की हवा आयनित हो जाती है और एक चाप (arc) बन जाता है। यह चाप इंसुलेटर के बजाय हॉर्न के माध्यम से जमीन तक पहुँच जाता है, जिससे इंसुलेटर क्षतिग्रस्त होने से बच जाता है। इस प्रकार, यह इंसुलेटर को बचाने के लिए एक तरह का स्पार्क गैप बनाता है।


ट्रांसमिशन लाइन में एक कंडक्टर से दूसरे कंडक्टर की दूरी वोल्टेज स्तर, स्पैन की लंबाई (दो टावरों के बीच की दूरी), और हवा के प्रभाव पर निर्भर करती है। यह दूरी निश्चित नहीं होती, बल्कि सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन की जाती है ताकि कंडक्टर आपस में न टकराएँ और शॉर्ट सर्किट न हो।

कंडक्टर के बीच की दूरी को प्रभावित करने वाले कारक

  • वोल्टेज स्तर (Voltage Level): सबसे महत्वपूर्ण कारक वोल्टेज है। जितना अधिक वोल्टेज होगा, कंडक्टरों के बीच आर्क (spark) और शॉर्ट सर्किट को रोकने के लिए उतनी ही अधिक दूरी की आवश्यकता होगी।
    • कम वोल्टेज (Low Voltage): 11 kV जैसी लाइनों के लिए, कंडक्टरों के बीच की दूरी आमतौर पर लगभग 0.75 से 1.2 मीटर होती है।
    • उच्च वोल्टेज (High Voltage): 132 kV या 220 kV जैसी लाइनों के लिए, यह दूरी 3 से 6 मीटर तक हो सकती है।
    • अतिरिक्त-उच्च वोल्टेज (Extra-High Voltage): 400 kV या इससे अधिक की लाइनों के लिए, दूरी और भी अधिक होती है, जो 10 मीटर से भी ज्यादा हो सकती है।
  • स्पैन की लंबाई (Span Length): दो टावरों के बीच की दूरी जितनी अधिक होती है, कंडक्टरों में सैग (झुकाव) उतना ही ज्यादा होता है। इस सैग के कारण, कंडक्टरों के बीच ऊर्ध्वाधर (vertical) दूरी कम हो सकती है, इसलिए उन्हें आपस में टकराने से रोकने के लिए क्षैतिज (horizontal) दूरी को बढ़ाना पड़ता है।
  • हवा और मौसम (Wind and Weather): तेज हवा चलने पर कंडक्टर झूल सकते हैं। इस झूलने से उन्हें आपस में टकराने से बचाने के लिए पर्याप्त दूरी रखी जाती है। बर्फ जमने जैसे मौसम की स्थिति भी कंडक्टरों के भार और सैग को प्रभावित करती है।

​यह दूरी टावर के प्रकार (suspension tower या tension tower) और कंडक्टर के प्रकार पर भी निर्भर करती है। हर देश और क्षेत्र के अपने विद्युत नियम होते हैं जो इस न्यूनतम दूरी को निर्धारित करते हैं।


ट्रांसमिशन लाइन में इंसुलेटर की संख्या वोल्टेज पर निर्भर करती है। आमतौर पर, प्रत्येक 11 kV वोल्टेज के लिए एक इंसुलेटर डिस्क का उपयोग किया जाता है। हालांकि, सुरक्षा कारकों (safety factor) को ध्यान में रखते हुए यह संख्या थोड़ी बढ़ सकती है।

इंसुलेटर डिस्क की संख्या वोल्टेज के साथ रैखिक रूप से बढ़ती है। यहाँ कुछ सामान्य वोल्टेज स्तरों के लिए डिस्क इंसुलेटर की अनुमानित संख्या दी गई है:

  • 11 kV लाइन: 1 डिस्क
  • 33 kV लाइन: 3 से 4 डिस्क
  • 66 kV लाइन: 5 से 6 डिस्क
  • 132 kV लाइन: 9 से 10 डिस्क
  • 220 kV लाइन: 13 से 15 डिस्क
  • 400 kV लाइन: 22 से 25 डिस्क
  • 765 kV लाइन: 40 से 45 डिस्क

इंसुलेटर की आवश्यकता क्यों होती है?

​इंसुलेटर का मुख्य कार्य कंडक्टर (तार) को टावर या पोल से विद्युत रूप से अलग करना है, ताकि करंट टावर या जमीन में प्रवाहित न हो।

उच्च वोल्टेज लाइनों के लिए अधिक इंसुलेटर डिस्क की आवश्यकता होती है क्योंकि:

ट्रांसमिशन लाइन को मुख्य रूप से दो तरीकों से वर्गीकृत किया जाता है: लंबाई (Length) और वोल्टेज (Voltage) के आधार पर।

लंबाई के आधार पर (Based on Length)

​लंबाई के आधार पर ट्रांसमिशन लाइनें तीन प्रकार की होती हैं:

  1. शॉर्ट ट्रांसमिशन लाइन (Short Transmission Line):
    • लंबाई: 80 किलोमीटर तक।
    • विशेषता: इन लाइनों में, कंडक्टर की धारिता (capacitance) के प्रभाव को अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि यह बहुत कम होता है।
  2. मीडियम ट्रांसमिशन लाइन (Medium Transmission Line):
    • लंबाई: 80 किलोमीटर से 240 किलोमीटर तक।
    • विशेषता: इस तरह की लाइनों में, कंडक्टर की धारिता को ध्यान में रखा जाता है और इसकी गणना के लिए विभिन्न मॉडल (जैसे T-मॉडल या π-मॉडल) का उपयोग किया जाता है।
  3. लॉन्ग ट्रांसमिशन लाइन (Long Transmission Line):
    • लंबाई: 240 किलोमीटर से अधिक।
    • विशेषता: इन लाइनों में, कंडक्टर की लंबाई और वोल्टेज बहुत अधिक होते हैं, इसलिए धारिता, प्रतिरोध और प्रेरकत्व (inductance) सभी को पूरे लाइन में वितरित (distributed) माना जाता है।

वोल्टेज के आधार पर (Based on Voltage)

​वोल्टेज के आधार पर ट्रांसमिशन लाइनें कई प्रकार की होती हैं:

  • लो वोल्टेज (Low Voltage): 1 kV तक।
  • मीडियम वोल्टेज (Medium Voltage): 1 kV से 33 kV तक।
  • हाई वोल्टेज (High Voltage): 33 kV से 220 kV तक।
  • एक्स्ट्रा-हाई वोल्टेज (Extra-High Voltage): 220 kV से 765 kV तक।
  • अल्ट्रा-हाई वोल्टेज (Ultra-High Voltage): 765 kV से ऊपर।

​इसके अलावा, ट्रांसमिशन लाइनों को AC (Alternating Current) और DC (Direct Current) ट्रांसमिशन लाइनों में भी विभाजित किया जाता है। हाई वोल्टेज DC (HVDC) ट्रांसमिशन का उपयोग बहुत लंबी दूरी के लिए किया जाता है क्योंकि इसमें AC की तुलना में कम नुकसान होता है।

भारतीय विद्युत नियमों (Indian Electricity Rules) के अनुसार, वोल्टेज को चार मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। ये नियम बिजली आपूर्ति की सुरक्षा और मानक को सुनिश्चित करते हैं।

भारतीय विद्युत नियम, 1956 के अनुसार वोल्टेज का वर्गीकरण:

  • निम्न वोल्टेज (Low Voltage): यह वह वोल्टेज है जो सामान्य परिस्थितियों में 250 V (वोल्ट) से अधिक नहीं होता। इसका उपयोग आम तौर पर घरेलू और छोटे वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में होता है।
  • मध्यम वोल्टेज (Medium Voltage): यह वह वोल्टेज है जो सामान्य परिस्थितियों में 250 V से अधिक, लेकिन 650 V से अधिक नहीं होता। इसका उपयोग छोटे उद्योगों और बड़े वाणिज्यिक भवनों में होता है।
  • उच्च वोल्टेज (High Voltage): यह वह वोल्टेज है जो सामान्य परिस्थितियों में 650 V से अधिक, लेकिन 33,000 V (33 kV) से अधिक नहीं होता। इसका उपयोग वितरण सबस्टेशनों और बड़े औद्योगिक परिसरों में किया जाता है।
  • अति उच्च वोल्टेज (Extra-High Voltage): यह वह वोल्टेज है जो सामान्य परिस्थितियों में 33,000 V से अधिक होता है। इसका उपयोग लंबी दूरी के बिजली पारेषण (transmission) के लिए किया जाता है।

​इन नियमों का उद्देश्य उपभोक्ताओं और बिजली के बुनियादी ढांचे दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।


वितरण लाइनों की ऊँचाई और खंभों के बीच की दूरी कई कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि वोल्टेज स्तर और आसपास का वातावरण (शहरी या ग्रामीण क्षेत्र)। ये सुरक्षा और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए स्थापित मानकों के अनुसार तय किए जाते हैं।

वितरण लाइन की ऊँचाई

​वितरण लाइन की ऊँचाई जमीन से न्यूनतम होनी चाहिए ताकि लोगों, वाहनों और इमारतों के लिए कोई खतरा न हो। भारतीय विद्युत नियमों के अनुसार, विभिन्न वोल्टेज स्तरों के लिए कुछ सामान्य न्यूनतम ऊँचाइयाँ इस प्रकार हैं:

  • कम वोल्टेज (Low Voltage) लाइनें (650V तक): जमीन से लगभग 5.5 मीटर की ऊँचाई।
  • उच्च वोल्टेज (High Voltage) लाइनें (11kV): जमीन से लगभग 6.1 मीटर या इससे अधिक ऊँचाई।
  • अतिरिक्त उच्च वोल्टेज (Extra High Voltage) लाइनें (33kV या उससे अधिक): इन लाइनों की ऊँचाई और भी अधिक होती है, जो सुरक्षा मानकों पर निर्भर करती है।

वितरण खंभों के बीच की दूरी (स्पैन)

​वितरण लाइनों में दो खंभों के बीच की दूरी को "स्पैन" कहा जाता है। यह दूरी खंभों के प्रकार, तारों के वजन और हवा के दबाव जैसे कारकों पर निर्भर करती है।

  • लकड़ी के खंभे: इन खंभों का उपयोग अब कम होता है, लेकिन इनका स्पैन आमतौर पर 40 से 50 मीटर होता था।
  • स्टील/कंक्रीट के खंभे: ये खंभे ज़्यादा मजबूत होते हैं और इनका स्पैन 50 से 80 मीटर तक हो सकता है। नए इंस्टॉलेशन में, बड़े खंभों के साथ लगभग 120 मीटर तक की दूरी भी संभव है।

​इन मानकों का पालन करना विद्युत सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि दुर्घटनाओं से बचा जा सके।



भारत में, डिस्ट्रीब्यूशन लाइनों का ग्राउंड क्लीयरेंस भारतीय विद्युत नियम 1956 (Indian Electricity Rules 1956) के अनुसार निर्धारित किया जाता है। यह क्लीयरेंस सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है। विभिन्न वोल्टेज स्तरों के लिए कुछ सामान्य ग्राउंड क्लीयरेंस इस प्रकार हैं:

सड़क के पार (Across a street)

  • कम और मध्यम वोल्टेज लाइनें (650V तक): 5.8 मीटर (लगभग 19 फीट)।
  • उच्च वोल्टेज लाइनें (11kV): 6.1 मीटर (लगभग 20 फीट)।

सड़क के किनारे (Along a street)

  • कम और मध्यम वोल्टेज लाइनें: 5.5 मीटर (लगभग 18 फीट)।
  • उच्च वोल्टेज लाइनें (11kV): 5.8 मीटर (लगभग 19 फीट)।

अन्य स्थानों पर

  • कम और मध्यम वोल्टेज लाइनें (बगैर इंसुलेशन): 4.6 मीटर (लगभग 15 फीट)।
  • उच्च वोल्टेज लाइनें (11kV तक, बगैर इंसुलेशन): 4.6 मीटर (लगभग 15 फीट)।
  • उच्च वोल्टेज लाइनें (11kV से ऊपर): 5.2 मीटर (लगभग 17 फीट)।

ध्यान दें: अतिरिक्त उच्च वोल्टेज (Extra High Voltage) लाइनों के लिए क्लीयरेंस 5.2 मीटर से अधिक होता है, और यह हर 33kV वृद्धि के लिए 0.3 मीटर बढ़ जाता है।


डिस्ट्रीब्यूशन लाइनों में इंसुलेटर की संख्या और प्रकार वोल्टेज लेवल और लाइन की स्थिति पर निर्भर करते हैं। यहाँ कुछ मुख्य प्रकार और उनके उपयोग दिए गए हैं:

पिन इंसुलेटर (Pin Insulator)

  • उपयोग: यह इंसुलेटर सबसे सामान्य है और इसका उपयोग मुख्य रूप से 33 kV तक की लाइनों के लिए किया जाता है।
  • विशेषता: इसे सीधे खंभे या क्रॉस-आर्म पर एक पिन (स्पिंडल) पर लगाया जाता है।

सस्पेंशन इंसुलेटर (Suspension Insulator)

  • उपयोग: 33 kV से अधिक वोल्टेज वाली लाइनों के लिए इसका उपयोग होता है।
  • विशेषता: ये डिस्क के रूप में होते हैं, जिन्हें एक स्ट्रिंग में एक साथ जोड़ा जाता है। प्रत्येक डिस्क की रेटिंग लगभग 11 kV होती है। इसलिए, जितनी अधिक वोल्टेज होती है, उतने ही अधिक डिस्क जोड़े जाते हैं।
    • 11 kV लाइन: इसमें केवल एक डिस्क इंसुलेटर का उपयोग होता है।
    • 33 kV लाइन: इसमें 3 डिस्क इंसुलेटर का उपयोग होता है।
    • 66 kV लाइन: इसमें 5 से 6 डिस्क इंसुलेटर का उपयोग होता है।
    • 132 kV लाइन: इसमें 9 से 10 डिस्क इंसुलेटर का उपयोग होता है।
  • गणना का तरीका: आवश्यक डिस्क की संख्या की गणना करने के लिए, लाइन-से-लाइन वोल्टेज को 11 kV से विभाजित किया जाता है। हालाँकि, सुरक्षित संचालन के लिए इसमें सुरक्षा कारक (safety factor) भी जोड़ा जाता है।

स्ट्रेन इंसुलेटर (Strain Insulator)

  • उपयोग: इसका उपयोग लाइनों के सिरों पर, तेज मोड़ों पर, या जहाँ लाइन पर अधिक यांत्रिक तनाव होता है, वहाँ किया जाता है।
  • विशेषता: यह सस्पेंशन इंसुलेटर के समान होता है, लेकिन इसे लंबवत की जगह क्षैतिज स्थिति में लगाया जाता है।

​इसके अलावा, शैकल इंसुलेटर और पोस्ट इंसुलेटर जैसे अन्य प्रकार भी उपयोग में आते हैं, जो विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार लगाए जाते हैं।



वितरण लाइनों में कई प्रकार के इंसुलेटर का उपयोग होता है, जिनका चयन वोल्टेज स्तर, लाइन के तनाव और डिजाइन के आधार पर किया जाता है।

पिन इंसुलेटर (Pin Insulator)

  • उपयोग: यह 33 kV तक की लाइनों के लिए सबसे सामान्य इंसुलेटर है।
  • संरचना: इसे सीधे खंभे या क्रॉस-आर्म पर एक पिन के ऊपर लगाया जाता है।

सस्पेंशन इंसुलेटर (Suspension Insulator)

  • उपयोग: 33 kV से अधिक वोल्टेज वाली लाइनों के लिए उपयोग होता है, विशेषकर हाई-टेंशन (HT) लाइनों में।
  • संरचना: इसमें कई डिस्क इंसुलेटर को एक स्ट्रिंग में जोड़कर लटकाया जाता है। जितनी अधिक वोल्टेज होती है, उतने ही अधिक डिस्क लगाए जाते हैं।

स्ट्रेन इंसुलेटर (Strain Insulator)

  • उपयोग: यह उन जगहों पर लगाया जाता है जहाँ लाइन पर अधिक यांत्रिक तनाव होता है, जैसे कि लाइनों के सिरों पर या तीखे मोड़ों पर।
  • संरचना: यह सस्पेंशन इंसुलेटर के समान होता है, लेकिन इसे लंबवत की जगह क्षैतिज रूप से लगाया जाता है।

शैकल इंसुलेटर (Shackle Insulator)

  • उपयोग: इसका उपयोग लो-वोल्टेज (LT) लाइनों में किया जाता है, खासकर सीधे रास्तों पर या मोड़ों पर।
  • संरचना: यह एक डिस्क के आकार का होता है और इसे क्रॉस-आर्म पर बोल्ट के साथ लगाया जाता है।

​इनके अलावा भी कुछ अन्य प्रकार के इंसुलेटर होते हैं, जैसे कि पोस्ट इंसुलेटर, जिनका उपयोग सबस्टेशन और कुछ विशेष प्रकार की लाइनों में होता है। इंसुलेटर का मुख्य कार्य विद्युत धारा को खंभे तक जाने से रोकना और तारों को सहारा देना है।



वितरण लाइन को कई आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसका सबसे सामान्य वर्गीकरण वोल्टेज स्तर और उपयोग के आधार पर होता है।

वोल्टेज के आधार पर

  • प्राइमरी डिस्ट्रीब्यूशन (Primary Distribution): यह वितरण प्रणाली का पहला चरण है। इसमें हाई-टेंशन (HT) लाइनें होती हैं, जो सबस्टेशन से बिजली को वितरण ट्रांसफॉर्मर तक पहुँचाती हैं। भारत में, यह लाइनें आमतौर पर 11 kV या 33 kV पर संचालित होती हैं।
  • सेकेंडरी डिस्ट्रीब्यूशन (Secondary Distribution): यह वितरण का अंतिम चरण है, जो वितरण ट्रांसफॉर्मर से उपभोक्ताओं के घरों तक बिजली पहुँचाता है। इसमें लो-टेंशन (LT) लाइनें होती हैं। भारत में, यह 415 V (3-फेज) या 230 V (सिंगल-फेज) पर काम करती हैं।

संरचना के आधार पर

  • ओवरहेड डिस्ट्रीब्यूशन (Overhead Distribution): इसमें नंगे तार और इंसुलेटेड तार खंभों या टावरों पर लगाए जाते हैं। यह सबसे आम और किफायती तरीका है, खासकर ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में।
  • अंडरग्राउंड डिस्ट्रीब्यूशन (Underground Distribution): इसमें इंसुलेटेड केबल जमीन के अंदर बिछाए जाते हैं। यह शहरी क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है जहाँ जगह की कमी होती है या सुरक्षा की अधिक आवश्यकता होती है। यह ओवरहेड प्रणाली की तुलना में अधिक सुरक्षित और सौंदर्यपूर्ण होता है, लेकिन इसकी लागत अधिक होती है।

कनेक्शन के प्रकार के आधार पर

  • रेडियल सिस्टम (Radial System): इसमें बिजली एक ही दिशा में सबस्टेशन से उपभोक्ताओं तक जाती है। यह सबसे सस्ता और सरल है, लेकिन इसकी विश्वसनीयता कम होती है क्योंकि अगर कहीं फाल्ट आता है तो उससे जुड़े सभी उपभोक्ता प्रभावित होते हैं।
  • रिंग मेन सिस्टम (Ring Main System): इसमें फीडर एक रिंग में जुड़े होते हैं। यदि किसी भी हिस्से में फाल्ट आता है, तो बिजली को दूसरी दिशा से आपूर्ति दी जा सकती है, जिससे विश्वसनीयता बढ़ जाती है।
  • इंटर-कनेक्टेड सिस्टम (Inter-connected System): यह सबसे विश्वसनीय प्रणाली है, जिसमें कई सबस्टेशन और रिंग मेन सिस्टम आपस में जुड़े होते हैं। अगर एक सबस्टेशन फेल हो जाता है, तो दूसरा सबस्टेशन बिजली की आपूर्ति कर सकता है।



सेवा लाइन (Service line) की ऊँचाई और दूरी भारतीय विद्युत नियमों (Indian Electricity Rules) के तहत तय की जाती है, ताकि सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। यह ऊँचाई और दूरी वोल्टेज और लाइन के स्थान पर निर्भर करती है।

सेवा लाइन की ऊँचाई

  • सड़क के ऊपर से:
    • कम और मध्यम वोल्टेज (650V तक): 5.8 मीटर (लगभग 19 फीट)
    • उच्च वोल्टेज (11kV): 6.1 मीटर (लगभग 20 फीट)
  • सड़क के किनारे से:
    • कम और मध्यम वोल्टेज: 5.5 मीटर (लगभग 18 फीट)
    • उच्च वोल्टेज (11kV): 5.8 मीटर (लगभग 19 फीट)
  • अन्य स्थानों पर (जहाँ सड़क नहीं है):
    • कम और मध्यम वोल्टेज (बगैर इंसुलेशन): 4.6 मीटर (लगभग 15 फीट)

भवन से दूरी

​सुरक्षा के लिए, सेवा लाइन और भवन के बीच कुछ न्यूनतम दूरी बनाए रखना आवश्यक है:

  • जब लाइन भवन के ऊपर से गुजरती है:
    • ​लाइन के उच्चतम बिंदु से 2.5 मीटर की ऊर्ध्वाधर (vertical) दूरी होनी चाहिए।
  • जब लाइन भवन के बगल से गुजरती है:
    • ​भवन के निकटतम बिंदु से 1.2 मीटर की क्षैतिज (horizontal) दूरी होनी चाहिए।
  • उच्च वोल्टेज (11kV) लाइन के लिए:
    • ​भवन से 1.2 मीटर की क्षैतिज दूरी।
    • ​ऊर्ध्वाधर दूरी 3.7 मीटर

​सेवा लाइन के खंभे और उपभोक्ता के घर के बीच की दूरी भी कनेक्शन की लागत को प्रभावित करती है। कुछ क्षेत्रों में, अगर यह दूरी 40 मीटर से अधिक होती है, तो अतिरिक्त पोल या केबल लगाने का खर्च उपभोक्ता को उठाना पड़ सकता है।

विद्युत सेवा लाइनें, जो बिजली को वितरण प्रणाली से अंतिम उपभोक्ता तक पहुँचाती हैं, मुख्य रूप से उनके लेआउट और वोल्टेज के आधार पर वर्गीकृत की जाती हैं।

लेआउट के आधार पर प्रकार

​सेवा लाइनों को उनके भौतिक लेआउट के आधार पर दो मुख्य प्रकारों में विभाजित किया जाता है:

  1. ओवरहेड लाइनें (Overhead Lines): ये लाइनें खंभों पर लगी हुई खुली हवा में चलती हैं।
    • फायदे: इनका निर्माण और रखरखाव सस्ता और आसान होता है।
    • नुकसान: ये खराब मौसम (जैसे तेज़ हवा, बर्फ़ीले तूफ़ान) और प्राकृतिक आपदाओं (जैसे पेड़ गिरना) से ज़्यादा प्रभावित होती हैं।
  2. भूमिगत लाइनें (Underground Lines): ये केबल सीधे जमीन में या सुरक्षात्मक कंड्यूट (conduit) में दबी होती हैं।
    • फायदे: ये मौसम और बाहरी क्षति से सुरक्षित रहती हैं और शहरों में दृश्य को बेहतर बनाती हैं।
    • नुकसान: इनका निर्माण और मरम्मत बहुत महंगी और जटिल होती है।

वोल्टेज के आधार पर प्रकार

​सेवा लाइनों को वोल्टेज के स्तर के अनुसार भी वर्गीकृत किया जाता है:

  1. लो-टेंशन (Low Tension) / निम्न-वोल्टेज (Low Voltage): ये लाइनें 1000 वोल्ट से कम वोल्टेज पर काम करती हैं। इनका उपयोग आमतौर पर आवासीय और छोटे वाणिज्यिक उपभोक्ताओं को बिजली प्रदान करने के लिए किया जाता है।
  2. हाई-टेंशन (High Tension) / उच्च-वोल्टेज (High Voltage): ये लाइनें 1000 वोल्ट से ज़्यादा वोल्टेज पर काम करती हैं। इनका उपयोग बड़े औद्योगिक या वाणिज्यिक ग्राहकों को बिजली आपूर्ति के लिए किया जाता है।


इंसुलेटर का मुख्य कार्य बिजली के तारों को खंभों और अन्य संरचनाओं से अलग रखना है ताकि बिजली का प्रवाह नियंत्रित रहे और किसी भी तरह के लीकेज को रोका जा सके। 

इंसुलेटर का उपयोग

​इंसुलेटर कुचालक पदार्थ होते हैं, जो अपने माध्यम से बिजली को प्रवाहित नहीं होने देते हैं। सर्विस लाइनों में इनका उपयोग निम्न कारणों से किया जाता है:

  • बिजली का रिसाव रोकना: इंसुलेटर यह सुनिश्चित करते हैं कि बिजली के तार सीधे खंभों से न जुड़ें, जिससे बिजली का प्रवाह खंभों में या ज़मीन में न जाए।
  • सुरक्षा प्रदान करना: यह इंसानों और जानवरों को बिजली के झटके लगने से बचाता है।
  • यांत्रिक सहारा: इंसुलेटर बिजली के तारों को खंभों पर मजबूती से पकड़कर रखते हैं, खासकर तेज़ हवा या अन्य यांत्रिक तनाव की स्थिति में।

सेवा लाइन के लिए विभिन्न प्रकार के इंसुलेटर का उपयोग किया जाता है, जैसे:

  • पिन इंसुलेटर: यह सबसे सामान्य प्रकार का इंसुलेटर है, जो सीधे खंभे पर लगा होता है और तारों को सपोर्ट करता है।
  • शैकल इंसुलेटर: इसका उपयोग कम वोल्टेज वाली वितरण लाइनों में किया जाता है। इसे क्षैतिज या ऊर्ध्वाधर दोनों स्थितियों में लगाया जा सकता है।
  • स्ट्रेन इंसुलेटर: इसका उपयोग तब किया जाता है जब लाइन में बहुत ज़्यादा तनाव होता है, जैसे कि किसी कोने या मोड़ पर।



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